शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

भाग-4 चलो, चलते है.....सर्दियों में खीरगंगा Winter trekking to Kheerganga(2960mt)

भाग-4  चलो, चलते है..... सर्दियों में "खीरगंगा"(2960मीटर) 1जनवरी 2016

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                                       मैं और विशाल रतन जी अब पार्वती घाटी के आखिरी गाँव "नकथान" से बाहर निकल कर "रुधिर नाग" की तरफ़ बढ़ रहे थे। नकथान से पीछे अब बरषैनी की ओर वापस देखने पर पार्वती घाटी के क्रमवार पहाड, एक बहुत खूबसूरत सजावट के साथ सजे नज़र आ रहे थे,  और वह सजावट थी.... ताज़ी गिरी हुई बर्फ की,  उन पहाडों के सिर सफेद रंगी "रुमी टोपी" पहने व शरीर गहरे हरे रंग के, किसी बलिष्ठ युवक की तरह लग रहे थे। सफेद और हरे रंग का तालमेल व नीचे बह रही आसमानी रंग की पार्वती नदी और मौसम इतना साफ कि कण-कण बखूबी नज़र आ रहा था, सच में क्या दिलकश दृश्य था वह, दोस्तों।
                       नकथान गाँव से कुछ आगे बढ़ने पर दूर से एक मोड़ सा नज़र आया,  जिस पर एक बहुत बड़े पत्थर का आश्रय लिये, नीचे घर और इक्का-दुक्का बंद दुकाने थी। जैसे ही हम उस मोड़ के पास पहुँचे,  तो देखा कि एक बड़े से समतल पत्थर पर धूप में बैठे कुछ बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं। मैने अपना कैमरा अभी ऊपर की ओर किया ही था,  उन बच्चों में से एक दस-बारह साल की लड़की जोर से बोली, "ओए, हमारी फोटो मत खींच ".........और, मेरा हाथ फिर से एक दम से नीचे हो गया। हम दोनों चुपचाप से उनके पास से गुज़र गये,  विशाल जी की रक्सैक पर बंधी मुँह से बजाने वाली सीटी को देख, पीछे से "अंकल जी, अंकल जी " की आवाजें आने लगी और अब उन बच्चों ने बदले हुए बहुत ही मधुर सुर में हमसे उस सीटी की मांग की,  परन्तु हमारे दिमाग में तो उन बच्चों का हमें  "ओए" कहा शब्द,  अब भारी पड़ चुका था..... सो, पीछे देखे बगैर हम दोनो आगे की ओर बढ़ गये!
                     कुछ आगे बढ़ आने पर, मैं इस घटना पर विश्लेषणात्मक सोच रख, विशाल जी से बोला, " यह घटना सिक्के के दो पहलू सी है,  एक पहलू तो हमने देखा कि उन बच्चों द्वारा हमें अभद्र भाषा में "ओए" सम्बोधन करना....और दूसरा पहलू है, जिसे मैं अब इस घटना के बाद महसूस कर रहा हूँ कि सोचो कि हम अपने शहर में किसी जगह पर खड़े है,  और कोई अनजान व्यक्ति आकर हमारी तस्वीरें खींचने लगे......तो हमारी उससे लडाई होनी निश्चित है, ये बच्चें अपनी जगह सही है,  क्योंकि जिस जगह पर ज्यादा सैलानी आते हैं, तो वहाँ के स्थानीय लोगों का सैलानियों द्वारा बगैर आज्ञा लिये फोटो खींचना.....परेशान करने वाली ही बात है।"
                      दोस्तों अभी हाल में ही की हुई मेरी श्री बद्रीनाथ धाम यात्रा के दौरान भी,  जब मैं भारत के आखिरी गाँव "माणा"  में गया,  तो मुझे इसी प्रकार की ही परिस्थिति से दो-चार होना पड़ा था। एक बुजुर्ग महिला जिन्होंने स्थानीय वेशभूषा में बहुत सुंदर लिबास व सिर पर पगड़ी बाँध रखी थी...... से उनकी फोटो खींचने की आज्ञा मांगने पर भी उन्होंने मना कर दिया,  और तर्क दिया कि यहाँ तो सैलानियों की भरमार है....हर कोई हाथ में मोबाइल व कैमरे लिया घूम रहा है, हमें सब के सब एक "दर्शनीय वस्तु " की भाँति ही देख रहे हैं और हमारी फोटो खींच कर ना जाने कहाँ से कहाँ पहुॅंचा देते हैं..!!
                       मैने उनसे कहा,  ठीक है जी... मैं आपकी फोटो नही खींचता,  पर मेरी तरह से हर सैलानी आप लोगों को उम्र भर याद रखने के लिए चित्रों में कैद कर ले जाना चाहता है...इसलिए यही विवशता ही हर सैलानी को मजबूर करती है, कैमरे का बटन दबाने के लिए...!!
                       एक मोड़ मुड़े, तो दूर से रुधिर नाग में पार्वती नदी पर बना पुराना जर्जर लकड़ी का पुल दिखाई देना लगा,  और उस पुल पर जो लड़के हमसे पहले गये थे....वे सब उस जर्जर पुल पर बैठ-बैठ पर बड़ी सावधानी से एक-एक कर पार कर रहे थे, और पुल के नीचे बह रही पार्वती नदी का प्रचण्ड वेग व तीव्र गर्जना....जो अच्छे-खासे मजबूत आदमी के दिल को भी हिला दे। मैने और विशाल जी ने एक-दूसरे को हिम्मत दी कि कोई बात नही हम भी इस टूटे-फूटे पुल को पार कर जायेंगे..!
                       तभी सामने से वो तीन चेन्नई वाले लड़के वापस आ रहे थे,  मैने पूछा, "भाई क्या हुआ...आप लोग तो खीरगंगा जा रहे थे,  वापस क्यों आ गये "  तो उन्होंने कहा कि रुधिर नाग में ही बहुत बर्फ है,  उससे ऊपर खीरगंगा जाना...तो बहुत ही खतरे वाली बात साबित हो रही है इसलिए हमने रुधिर नाग से ही वापसी करने में अपनी भलाई समझी। 
                    उनकी बात सुन कर हमने फिर से रुधिर नाग को दूर से देखा,  जिस पर हर तरफ़ बर्फ की सफेदी छाई दिखाई पड़ रही थी और पार्वती नदी के दोनों किनारे भी बर्फ से ढ़क चुके थे। खैर, देखते -देखते हम दोनों रुधिर नाग पहुँच गये तो पाया कि सीढ़ियों पर ताज़ी पड़ी बर्फ, लोगों के चलने के कारण बहुत कठोर व फिसलदार हो चुकी है।  
                    सीढियाँ चढ़ने के बाद जब रुधिरनाग के सम्पूर्ण दर्शन हुए तो दोस्तों,  "क्या लिखूँ क्या कहूँ ".....बस दो पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य से गुज़र रही उफनती पार्वती नदी की धारा और उसके किनारे पर कुछ समतल सी जगह,  जिसमें एक बहुत मनमोहक जल प्रपात गिर रहा है। यह झरना भगवान शिव के नाग के फन की सी आकृति बना जमीन पर गिरता है, जो सच में मन को मोह लेता है। एक छोटा सा बगैर छत के मंदिर और धर्मशाला,  जिसके दरवाजें नही थे। मैंने हिमाचल प्रदेश की बहुत सी ऊँची धार्मिक जगहों पर देखा है कि वहाँ धर्मशालाओं के दरवाजें नही लगाये जाते वो इसलिए कि सभी आमंत्रित हैं। चाहे मंदिर के कपाट बर्फ पड़ने पर बंद भी हो जायें,  देवता या देवी भी नीचे की ओर चले आये...इसलिए वहाँ तक पहुँचने वाले व्यक्ति को सिर छिपाने के लिए कम से कम एक छत तो मिले और चंद ऊंची जगहों पर मुझे यह कटु अनुभव भी हुआ कि यदि ऐसी जगहों पर कोई व्यक्ति रात में फंस गया, तो उसने वहाँ मौजूद खिड़की- दरवाज़ों को तोड़, जला कर अपनी जान बचाई...क्योंकि सर्दियों में सब कुछ तो बर्फ के नीचे दब जाता है।
                      मैं अपनी 24साल पहले की हुई खीरगंगा यात्रा के समय रुधिर नाग की स्मृति की एक झलक के साथ, इस मौजूदा दृश्यांश को जोड़ कर देखना लगा.....तो मुझे अब का रुधिर नाग बिल्कुल बदला सा लगा।  मैं व विशाल जी उस नागफनी से झरने की खूबसूरती को निहारते रहे,  तभी सामने से वो ही लड़कों का झुंड वापस भी मुड़ आया,  जो उस जर्जर टूटे हुए पुल से पार्वती नदी को पार कर खीरगंगा के लिए आगे गये थे। 
                    हमने उनसे भी वापसी का कारण पूछा,  तो वही उत्तर मिला कि, "बहुत मुश्किल है भाई, आगे रास्ते में जमीं हुई बर्फ के कारण खीरगंगा की ओर बढ़ना ".....और उन्होंने ही हमें सलाह दी कि जिस रास्ते से हम वापस आये हैं,  वहाँ पर पार्वती नदी को लाँघने के लिए एक नया पुल बना है...आप लोग इस टूटे पुल की बजाय उस पुल से दूसरी तरफ़ लाँघ जाना।
                     और, हम दोनों बढ़ चले उस ओर.....रुधिर नाग में काफी बर्फ गिर हो चुकी थी और हमारे पैर उस ताज़ी बर्फ में अब धंसने शुरू हो रहे थे। पार्वती नदी पर बने उस नवीन पुल पर खड़े हो,  मैने विशाल जी से कहा, "देखो इस उछलती चटखट नदी के आसमानी रंग के जल को और सुनो व महसूस करो....जो मैं सुन रहा हूँ कि यह जल पूर्ण वेग से नदी में पड़े पत्थरों पर गिर कर 'तबले की तीन ताल ' जैसी शास्त्रीय थाप सुना रहा है और इस तरफ़ ऊपर पहाड की ऊँचाई से नदी में गिर रहा यह झरना भी 'तानपूरे' की निरंतर मधुर ध्वनि छेड़ रहा है...! "
                        मेरे इस तर्क पर विशाल जी मंत्रमुग्ध से बोले, "हां विकास जी,  मैं अब खुद महसूस व सुन पा रहा हूँ...प्रकृति के इस कर्णप्रिय संगीत को...!"  
                        पुल पार कर हम बैठ गये, कुछ खाने के लिये... क्योंकि दोपहर के 2:30बज चुके थे और भूख भी तो लग चुकी थी। अब हम दोनों अपने बूटों में बर्फ को जाने से रोकने के लिए "गेट्रर" पहने लगे, कि ना जाने आगे कितनी गहरी बर्फ में हमारा पैर पड़े और हमारे पैर गीले होने से बच जाये क्योंकि बर्फ और इतनी सर्दी में यदि पैर एक बार गीला हो गया,  तो वह स्थिति हमारे लिए घातक सिद्ध हो होती है।

                                                   ..........................(क्रमश:)
" नाल जाना, नाल जाना... अंसा रूमी टोपी वाले नाल जाना "

पार्वती घाटी के आख़िरी गाँव नकथान से आगे बढ़ने पर.... एक मोड़ पर बड़े से पत्थर कें नीचे बना घर,  यहाँ हमे वे बच्चे मिले....जिनका हमे "ओए" कहना बहुत असभ्य लगा।

रूधिर नाग का दूर दृश्य..... और विशाल रतन जी। 

रूधिर नाग जल-प्रपात को निहारता हुआ.... मैं!

रूधिर नाग में फैली सफेद चादर।

रूधिर नाग में पार्वती नदी पर बना जर्जर पुल,  जिस पर वे लड़के एक-दूसरे को हल्ला-शेरी दे कर पार करवा रहे थे।

रूधिर नाग के नये बने पुल पर खड़ा हो... प्रकृति के शास्त्रीय संगीत को सुनता, मैं।

रूधिर नाग के नये बने पुल....पर खड़े हम दोनों।

लो, फिर से देख लो मित्रों...इन सिरफिरों को,  लोग तो वापस मुड़ रहे थे और ये दोनों आगे बढ़ने की ज़िद में हैं...!!!

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3 टिप्‍पणियां:

  1. अरे साहब। अगले भाग पर जाने का लिंक हर भाग के अंत में लगाइये। बार बार पीछे जा कर आगे जाना पड़ता है । लाजवाब लेखन और वर्णन ।

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  2. स्थानीय लोगो की फोटो खीचना वाला बिंदु सही है...बढ़िया पोस्ट

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